Wednesday 17 February 2016

Culture - मेरी गौरवमयी परम्पराओं को रखना होगा जारी

किश्त - 19

मेरी गौरवमयी परम्पराओं को रखना होगा जारी

      मेरी गंगा-जमुनी तहजीब ही मेरी खासियत है। मेरी सांस्कृतिक विरासत के कारण मुझे प्रदेश कीसांस्कृतिक राजधानीहोने का गौरव मिला। पर, अपने बीते कुछ दशकों को देखता हूॅ तो बहुत से बदलाव नजर आते हैं। पुरानी परम्पराऐं-तीज-त्यौहार, मेल-मिलाप, हर्षो- उल्लास, नाच-गान आदि सब में एक उतार-सा गया है। बहुत सी चीजें, परम्पराऐं, तीज-त्यौहारों की रौनक सिर्फ सांकेतिक हो गई है। कई बार तो लगता है कि क्या आने वाले समय में यह स्वर्णिम अतीत सब कागजी हो जाऐगा?
      पहले शीतला माता के मेले पर घर-परिवार और मौहल्ले की सभी औरतंे एकत्र होकर बड़े तड़के ही गीत गाती हुई शीतला माता पूजन के लिए निकल जाया करती थी, किंतु आज ना वो गीत है ना वो रौनक। ना वो सबका साथ है, ना शीतला माता की कथा का पता। और तो और... बच्चों में मिट्टी-प्लास्टिक के खिलौनों का चार्म भी खत्म हो चला है। लगता है आधुनिकता की दौड़ में बहुत कुछ खोता जा रहा है।
      महावीर जयंती पर निकलने वाले जुलूस का भी यही हाल है। यहॉं तक की इससे जुड़े जैन समाज के लोग भी इसमें पूरे रास्ते साथ नहीं रहते। सिर्फ इसे देखकर ही घर को विदा हो लेते है। जुलूस में सजने वाली अधिकांश झांकिया निर्जीव सी रहती है। पहले समाज के लोग इसमें सजधज कर अपना रोल अदा करते थे, किंतु धीरे-धीरे इनकी जगह पुतले, प्लास्टिक, झाड़फूस, लकड़ी, कागज एवं गत्तों से झांकियॉं सजने लगी है। यह सब अपनी सांस्कृतिक विरासत से विमुख होना नहीं तो और क्या है? इन सबसे लोगों का त्यौहारों के प्रति जुड़ाव भी घटा है।
      इसी प्रकार अब गणगौर की सवारी है। यह करीब डेढ़ सौ साल पुरानी परम्परा है। पहले यह बड़े धूमधाम से सज-धज कर निकलती थी। बाजार सजते थे। जगह-जगह बैण्ड बाजे बैठाये जाते थे। चौपड़ में बैंड का कॉम्पिटिशन होता था। बाजार में पूरी रात रौनक रहती थी। यहॉं तक की जगह रोकने की होड़ सी मची होती थी। सवारियॉं ठेठ दौलत बाग तक जाती थी, किंतु आज देखते ही देखते वो रौनक सब हवा हो रही है। अब ना बाजार उतने सजते हैं और ना वो रौनक नजर आती है। परम्पराऐं टूट रही है। पता नहीं आधुनिकता लील गई या फिर मेहंगाई ने मार दिया। अब कभी कोई गणगौर निकलती है, तो कभी कोई नहीं। कभी बाजार सजते हैं तो कभी नहीं। ज्यों-त्यों निकलती है, तो पारम्परिक शाही ठाठ-बाठ और रौनक में उतार आया है। बढ़ती व्यस्तता और आधुनिकता की वजह से लोगों की भीड़ में भी कमी आई है। निश्चय ही यह सोचनीय विषय है।
      इसी प्रकार होली के बाद निकलने वाली सम्राट अशोक की सवारी यानी बादशाह की सवारी का हाल है। सांकेतिक रूप से अपनी रियाया को गुलाल के रूप में खर्ची बांटने की यह परम्परा भी जब-तब टूटती रहती है। नया बाजार-चौपड़, के हर घर-दुकान को खुशियों और रौनक से सराबोर कर देने वाली यह सवारी कभी निकलती है तो कभी नहीं। इसे कभी राजनीति मार देती है तो कभी इच्छा शक्ति! कभी मेहंगाई तो कभी पहल! ब्यावर में तो इस सवारी की धूम रहती है। लोग दूर-दूर से देखने जाते हैं। प्रदेश भर में चर्चा रहती है। बीते वर्ष पुष्कर और नसीराबाद में भी यह सवारी निकली, किंतु अजमेर में इसका अभाव रहा। उम्मीद है इस बार नगर निगम अपनी रियाया का ख्याल रखेगी और अच्छी परम्पराओं को टूटने नहीं देगी।
      होली पर पहले हफ्ते-दस दिन तक रौनक रहती थी। फाल्गुन के गीत और चंग की धूम मचती थी। होली के अवसर पर हॅंसी-ठिठौली के लिए मूर्ख सम्मेलन जैसे आयोजन भी होते थे। टाइटल दिऐ जाते थे। किंतु अब सब कुछ सिमटता जा रहा है। होलिका दहन के हालात यह है कि बहुत से मौहल्लों में तो यह बंद ही हो गई है। कहीं चंदा एकत्र करने वाले नहीं है तो कहीं पहल करने वाले नहीं हैं। कहीं चंदा देने वाले ना-नूकूर करते हैं तो कहीं होलिका जलाने को लेकर विवाद हैं। यानी होली भी अब अपना पुराना सांस्कृतिक गौरव खोती जा रही है।
      जन्माष्ठमी को ही लंे। पहले पूरा शहर इसमें शामिल होता था। गली-मौहल्लों और बाजारों में झॉंकियॉं सजाने की होड़ सी रहती थी। घर-घर जाकर चंदा लिया जाता था। हर आदमी अपनी श्रृद्धा से सहयोग करता था। छोटी-बड़ी झॉकी हर गली-नुक्कड़ पर सजती थी। बाजारों में देर रात तक स्वर-लहरिया गूंजती थी। लोगों का इन सबसे आपस में एक जुड़ाव रहता था, किंतु गत कुछ वर्षो में जाने क्यूं आम लोगों से जुड़ी इस सांस्कृतिक प्रथा को नगर निगम ने छीन लिया। अब झॉंकियॉं सिर्फ दौलत बाग में सजने लगी हैं। हॉं, यह अच्छी जरूर सजती हैं, किंतु इनमें ना तो लोगों का चंदा होता है ना मेहनत और ना ही कोई जुड़ाव। यह सब प्रोफेशनल्स द्वारा बनायी जाती है, जहॉं लोगों का जुड़ाव, सांस्कृतिक परम्पराओं में शामिल होना आदि कुछ नजर नहीं आता।
      दीवाली की रौनक भी फीकी हुई है। रौशनी भलेही पहले से ज्यादा होती होगी, किंतु तन-मन पर मुस्कान फीकी ही रहती है। बल्बों अन्य डेकोरेटिव चाईनिज चीजों ने दीयों की रौशनी के साथ साथ बाजारों की वो परम्परागत रौनक छीन ली है। गैरू से बनने वाले मांडणे रंगोली गायब हो चुकी हैं। महिनों पहले से शुरू होने वाली तैयारियों का समय भी सिमट गया है। अब राम-राम के दिन लोगों के आने-जाने का तांता जरूर रहता है, किंतु रिश्तों में वो मिठास और मेल-मिलाप मतलबी और दिखावटी ज्यादा नजर आता है।
      शादियों पर होने वाले रीति-रिवाज, टूणें, लोक गीत, बन्ने-बन्नी आदि भी अब सिर्फ लिपापोती हो गऐ है। थोड़े बहुत कहीं होते भी है तो वह सिर्फ टेप, डेक या फिल्मी धुनों पर ही होते है। इनमें भी कई बार तो फूहड़ता नजर आती है।
      इन सब का जिक्र करने का तात्पर्य सिर्फ इतना है कि मेरा अतीत कितना रसभरा गौरवपूर्ण था। यह सब परम्पराऐं भी मेरी सांस्कृतिक विरासत रही है, किंतु आज का स्वरूप देखकर पीड़ा होती है। लोग अच्छी चीजों से दूर होते जा रहे हैं। सब कुछ दिखावटी, मतलबी, रस्मी और सिम्बोलिक हो गया है या फिर अधोगति की तरफ हो लिए हैं। लोगों की मन से भागीदारी में कमी आई है।
      वैसे ही आज घर-परिवार सीमित हैं। टूट रहे हैं। बिखर रहे हैं। बनावटी मेलमिलाप कॉलोनी वाईज होने लगा है। ऐसे में इन दिऐ गऐ चंद उदाहरणों पर हर अजमेरी को गौर करना चाहिऐ। सच्चाई यह है कि यह सब वो त्यौहार हैं, जो लोगों को जोड़ते हैं। लोगों को मिलाते हैं .... खुशियां बॉंटते हैं। उत्साह और उमंग सींचते है। जीवन को जीवंत करते है। कृप्या विचार करें इन बातों पर। मेरा तो सिर्फ आपको आगाह करने का है... जाग्रत करने का है.... राह दिखाने का है। ....बाकि आपकी मर्जी!
(अनिल कुमार जैन)
अपना घर’, 30-,
सर्वोदय कॉलोनी, पुलिस लाइन,
अजमेर (राज.) - 305001  
                                                                                Mobile                - 09829215242

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